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गुप्तकालीन सामाजिक स्थिति

 

गुप्तकालीन
सामाजिक स्थिति

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गुप्तकालीन-सामाजिक-स्थिति


गुप्त काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय को संयुक्त रूप से द्विज कहा गया है।

गुप्तकालीन समाज परम्परागत 4 जातियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था। 

पहले की तरह ब्राह्मणों को इस समय भी समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

गुप्त काल में इन वर्णों के अलावा अन्य जातियों का भी उल्लेख मिलता है जैसे मूर्ध्दावषिक्त, अम्बष्ठ, पारशव, उग्र एवं करण। 


अम्बष्ठ:- ब्राह्मण पुरुष एवं वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहे गए। विष्णु पुराण में इन्हें नदी तट पर निवासी माना गया है मनु ने इन्हें का मुख्य व्यवसाय चिकित्सा बताया है। 

पारशव:- इस जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र स्त्री से हुई। इन्हें निषाद भी कहा जाता है पुराणों में इनके विषय में जानकारी मिलती है 

उग्र:- गौतम के अनुसार वैश्य पुरुष एवं शुद्ध स्त्री से उत्पन्न जाति उग्र कहलाई। पर स्मृतियों का मानना है कि इस जाति की उत्पति क्षत्रीय पुरुष एवं शूद्र जाति की स्त्री से हुई हैं। इनका मुख्य कार्य था बिल के अंदर से जानवरों को बाहर निकाल कर जीवन यापन करना है। 

फाह्यान ने गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्यत (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियोंओं में इन्हें अंतज्य कहा गया है। पाणिनी ने इनका उल्लेख निरवसित शुद्र के रूप में किया है। 

संभवतः इस जाति के उत्पति शूद्र पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री से हुई है। 

यह जाति बस्ती के बाहर निवास करते थी इनका मुख्य कार्य शिकार करना एवं श्मशान घाट की रखवाली करना था। 

गुप्त काल में लेखकीय, गणना, आय का हिसाब रखने वाले आदि कार्यो को करने वाले वर्ग को कायस्थ कहा गया है।


 

व्हेनसांग अनुसार:- 

क्षत्रिय राजा की जाति थी। 


फाह्यान के अनुसार:- 

फाह्यान ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था की खूब प्रशंसा की है और बताया कि यहाँ के लोग बहुत दयालु एवं धर्मनिष्ट प्रवृत्ति के हैं। 

गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्यत (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियोंओं में इन्हें अंतज्य कहा गया है। पाणिनी ने इनका उल्लेख निरवसित शुद्र के रूप में किया है।



खान-पान:-

कुछ गुप्तकालीन ग्रंथों में ब्राह्मणों को निर्देशित किया गया कि वे शूद्रों द्वारा दिए गए अन्न को ग्रहण न करें। 

जबकि बृहस्पति ने संकट के क्षणों में ब्राह्मण द्वारा शूद्र एवं दासों से अन्न ग्रहण करने की आज्ञा दी है। 

फाह्यान के अनुसार :- जनता साधारणतः शाकाहारी हैं और मांस का सेवन केवल चाण्डाल करते हैं। 

व्यवसाय :-

गुप्त काल के पूर्व ब्राह्मणों के केवल छह कार्य अध्ययन, अध्यापन, पूजा-पाठ, यज्ञ कराना ,दान देना, और दान लेना माना जाता था।

लेकिन गुप्तकाल में ब्राह्मणों ने अन्य जातियों के व्यवसाय को अपनाना आरंभ कर दिया था। 

मृच्छकटिकम् के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण वाणिज्य का कार्य करता था। उसे ब्राह्मण का आपधर्म कहा गया है। 

इसके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण राजवंश जैसे वकाटक एवं कदंब का उल्लेख मिलता है।  

ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ वैश्य शासक जैसे हर एवं सौराष्ट्र, अवंती, मालवा के शूद्र शासकों के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। 

चंद्रगुप्त के इंदौर अभिलेख से कुछ क्षत्रियों द्वारा वैश्य का कार्य करने का उल्लेख है।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराह मिहिर ने बृहद संहिता में चारों वर्णों के लिए अलग-अलग बस्तियों का विधान किया है। न्याय संहिता में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि, से वैश्य की जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए।

इस काल में शूद्रों द्वारा सैनिक वृत्ति अपनाने के प्रमाण मिलते हैं। 

याज्ञवल्क्य ने शूद्रों के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण अपनाते हुए इन्हें व्यापारी कारीगर एवं कृषक होने की अनुमति प्रदान की विवरण एवं 

नरसिंह पुराण के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि शूद्रों ने कृषि कार्य को अपना लिया था। 


गुप्त कालीन न्याय-व्यवस्था और सैन्य व्यवस्था

दास प्रथा का प्रचलन:-



गुप्त काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था। नारद ने आठ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।  इनमें प्रमुख थे:- 

      1. प्राप्त किया हुआ दास (उपहार आदि से) 
      2. स्वामी द्वारा प्रदत्त
      3. ऋण का चुकता ना कर पाने के कारण बना दास 
      4. दांव पर लगाकर हारा हुआ दास (पासे आदि खेलों)
      5. स्वयं से दासत्व ग्रहण स्वीकार करने वाला दास 
      6. एक निश्चित समय के लिए अपने को दास बनाना 
      7. दासी के प्रेम जाल में फस कर बनने वाला दास 
      8. आत्म विक्रय (स्वयं को बेचकर) 


मनु ने सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। 

दासियों के बारे में भी जानकारी मिलती है।  

अमरकोश में दासीसमग्र का वर्णन आया है। 

इस समय दासों को उत्पादन कार्यों से अलग रखा गया, जबकि मौर्य के समय दास उत्पादन कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। 

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दासो की स्थिति गुप्तों के समय ठीक नहीं थी। 


गुप्त कालीन व्यापार एवं वाणिज्य

स्त्रियों की स्थिति:-

गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति के विषय में इतिहासकार और रोमिला थापर ने लिखा है कि साहित्य और कला में तो नारी का आदर्श रूप लगता है पर व्यवहारिक दृष्टि से देखने पर समाज में उनका स्थान गौण था। 

पुरुष प्रधान समाज में पत्नी को व्यक्तिगत संपत्ति समझा जाता था। 

पति के मरने पर पत्नी को सती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। 

उत्तर भारत की कुछ सैनिक जातियों के परिवारों को बड़े पैमाने पर सती होने की प्रथा का प्रचलन था। 

प्रथम सती होने का प्रमाण 510 ईसवी के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से मिलता है, जिसमें किसी को गोपराज (सेनापति) की मृत्यु पर उसकी पत्नी के सती होने का उल्लेख है। 

गुप्त काल में कन्याओं का विवाह अल्पायु 13 या 14 वर्ष में कर दिया जाता था। 

गुप्त काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन केवल उच्च जातियों की स्त्रियों में था। 

गुप्तकालीन समाज में वैश्याओं के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं पर इनके वृत्ति की निंदा की गई है। 

गुप्त काल में वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों को गणिका कहा जाता था। 

गुप्त काल में स्त्री धन का दायरा बढ़ा। कात्यायन ने स्त्री को अचल संपत्ति के स्वामी मारा है। 

गुप्त काल में पुत्र के अभाव में पुरुष की संपत्ति पर उसकी पत्नी का प्रथम अधिकार होता था।  

स्त्रियों के स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार उनकी पुत्रियों का होता था।  

इस समय उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियों के विदुषी एवं कलाकार होने का उल्लेख मिलता है। 

अभिज्ञान शाकुंतलम में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता बताया गया है। 

मालती माधव में मालती को चित्रकला में निपुण बताया गया है। 

अमरकोश में स्त्री शिक्षा के लिए आचार्यी, उपाध्यायीय, उपाध्याय शब्दों का प्रयोग किया गया है।

गुप्त काल के सिक्कों पर स्त्रियों जैसे कुमार देवी तथा लक्ष्मी के चित्र उच्च वर्ग के स्त्रियों के सम्मान सूचक है। 

पर्दा प्रथा का प्रचलन था, बाल विवाह एवं विवाह की प्रथा व्यापक हो गई थी। 

मेघदूत में उज्जैन के महाकाल मंदिर में कार्यरत देवदासियों का वर्णन मिलता है। 

मनु के अनुसार जिस स्त्री को पति ने छोड़ दिया हो या जो स्त्री विधवा हो गई हो यदि वह अपनी इच्छा से दूसरा विवाह करें तो वह पुनौर्भू तथा उसकी संतान को पुनौर्भव कहा जाता था। 


गुप्त कालीन राजस्व के स्त्रोत

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