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गुप्तकालीन व्यापार और वाणिज्य एवं राजस्व के स्त्रोत

 

राजस्व के स्त्रोत



गुप्त काल में राज्य की आय के प्रमुख स्त्रोत "कर" थे, जो निम्नलिखित हैं:-

    भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठवां हिस्सा। 

    भोग- संभवत राजा को हर दिन फल फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर। 

    प्रणयकर- गुप्त काल में ग्राम वासियों पर लगाया गया अनिवार्य शिक्षा चंदा था। 

    उपरिकर एवं उद्रंगकर:- यह एक प्रकार का भूमि कर होता था। भूमि कर की अदाएं अदायगी    दोनों ही रूपों में "नकद" या अन्न में किया जा सकता था।  किंतु छठी सदी के बाद किसानों को        भूमि कर की अदायगी अन्न के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा।    

    हलदण्ड कर:- हल पर लगता था।

    राजकर:- गुप्त काल में वणिकों, शिल्पियों शक्कर और नील बनाने वालों पर राजकर लगता था।


गुप्त काल में राजस्व के अन्य महत्वपूर्ण स्त्रोतों में भूमिकर, रत्न, छिपा हुआ गुप्त धन, खानें एवं नमक आदि थे।

गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को उद्रंग तथा भागकर कहा गया है। स्मृति ग्रंथों में ऐसे राजा की वृत्ति के रूप में उल्लेख किया गया है।


भूमिकर भोग का उल्लेख मनुस्मृति में हुआ है। 

इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख हर्षचरित में आया है। 

इन सब पर सीधे सम्राट का एक आधिपत्य होता था। 

संभवतः गुप्त काल में भू-राजस्व कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 भाग तक होता था। 




भूमि के प्रकार :-

इस समय प्रचलन में पांच प्रकार के भूमि का उल्लेख मिलता है:-

  1. क्षेत्र भूमि         :- ऐसी भूमि जो खेती के योग्य होती थी। 
  2. वास्तु भूमि       :- ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती थी। 
  3. चारागाह भूमि :- पशुओं के चारे के योग्य भूमि। 
  4. खिल               :- ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती। 
  5. अग्रहत            :- ऐसी भूमि जो जंगली होती थी। 


अमर सिंह ने अमरकोश में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है। 



व्यापार एवं वाणिज्य


गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था उज्जैन, भड़ौच,  प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ती, मथुरा, कौशांबी आदि महत्वपूर्ण व्यापारिक नगर थे। 

इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। 

स्वर्ण मुद्राओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका। 

गुप्त राजाओं ने ही सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी की। 

इनकी स्वर्ण मुद्राओं की अभिलेखों में दिनार कहा गया है। इनकी स्वर्ण मुद्राओं में स्वर्ण की मात्रा कुषाणों की स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में कम थी। 

गुप्त राज्यों में गुजरात को विजय (चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों के विरुद्ध) करने के उपरांत चांदी के सिक्के चलाए।  

तांबे के सिक्कों का प्रचलन गुप्त काल में कम था। 

पूर्वी तटीय बंदरगाहों ताम्रलिप्ति, घंटशाला अवं कदुरा से दक्षिण-पूर्वी एशिया से व्यापर होता था। 

पश्चिमी तटीय बंदरगाहों भड़ौच, सोपारा, कल्याण से भूमध्य-सागर एवं पश्चिमी एशिया से व्यापर होता था।  

चीन और भारत के मध्य होने वाला व्यापार संभवत वस्तु विनियमन विनिमय प्रणाली पर आधारित था। 

भारत चीन को केसर रत्न सुगंधित पदार्थ सिले सिलाए सुंदर वस्त्र आदि निर्यात करता था। 


भारत में चीन से    --- रेशम 

      इथोपिया से    --- हाथी दांत 

अरब ईरान और बैक्टीरिया से     --- घोड़ों का आयात करता था। 


भारतीय जलयान निर्माध रूप से अरब सागर, हिंद महासागर एवं चीन सागर में विचरण किया करते थे। 

गुप्तों के समय में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योगों में से था रेशमी वस्त्र (मलमल), लिनन, ऊनी एवं सूती वस्त्रों की मांग की अधिकता के कारण इनका बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता था। 

कुषाण काल के विपरीत गुप्त काल में आंतरिक व्यापार में ह्यस के लक्षण दिखते हैं। 

माया ने लिखा है कि गुप्त काल में साधारण जनता दैनिक जीवन के विनिमय में वस्तुओं के आदान-प्रदान या फिर कौड़ियों से काम चलाती थी। 



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