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चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)

 


चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)


चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई.):-
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य


समस्त गुप्त राजाओं में समुद्रगुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय सर्वाधिक शौर्य एवं विरोचित गुणों से संपन्न था। 


उसने देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमभागवत, नरेंद्रचंद्र, सिंहविक्रम, अजीतविक्रम, आदि  उपाधि  धारण किए थे। 


चंद्रगुप्त द्वितीय को शकरि अर्थात "शकों के शत्रु" की उपाधि दी गई है। 


चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वकाटक नरेश रूद्रसेन से किया। रूद्रसेन की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई।  


इसी कारण चंद्रगुप्त द्वितीय को उज्जैनपुरवराधीश्वर भी कहा जाता है। 

उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र अतः चंद्रगुप्त द्वितीय को पाटलिपुत्रपुराधीश्वर भी कहा गया है। 


दक्षिण भारत में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था। श्रृंगारप्रकाश तथा कुंतलेश्वरदौत्यं से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से महत्वपूर्ण संबंध था। 


चंद्रगुप्त ने महाकवि कालिदास को अपना राजदूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। 


तालगुंडा प्रशस्ति से यह ज्ञात होता है कि कुंतल नरेश ककुत्स्यवर्मन ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से किया था।



चीनी यात्री फाह्यान (399-414 ई.):- 

चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फाह्यान ने 399-414 ई. में भारत यात्रा पर आया था। 

फाह्यान


यात्रा का उद्देश्य:- 

फाह्यान की यात्रा का उद्देश्य बौद्ध धर्म के प्रमाणिक ग्रंथों की खोज करना तथा तीर्थ स्थलों को देखना था। 



किस रास्ते से आया:- 

वह पश्चिमी चीन, मध्य एशिया, पेशावर के स्थल मार्ग से भारत आया। व ताम्रलिप्ति से सिंहल द्वीप (लंका) होते हुए समुद्री मार्ग से वापस लौट चीन गया। 

वह 3 वर्ष तक पाटलिपुत्र में रहा। अपनी यात्रा के अंतिम चरण में वह लुंबिनी तथा वैशाली गया। 


उसने अपनी यात्रा विवरण में लिखा कि तमलुक, पेशावर, गंधार, तक्षशिला बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र थे। 

मध्य भारत में ब्राह्मणों का बोलबाला था। 

क्रय विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। 

चांडाल शहर के बाहर रहते थे। 

देश में परोपकारी संस्थाएं थीं। 

सारिपू, मोग्गलायन तथा आनंद के सम्मान में स्तूप बने थे। 

कपिलवस्तु, कुशीनगर व श्रावस्ती की दशा सोचनीय हो गई थी। 



कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य

समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन



सैनिक अभियान:-

अपने सैनिक अभियानों के दौरान चंद्रगुप्त की सबसे पहली विजय शक राजा रुद्रसिंह तृतीय पर हुई। इसकी पुष्टि उससे प्राप्त तीन अभिलेखों से होती है। 

प्रथम अभिलेख भिलसा के पास उदयगिरि पहाड़ी से मिला है। 

दूसरा अभिलेख उदयगिरी में मिलता है। 

तीसरा अभिलेख सांची का है। 

शक विजय के उपलक्ष में चंद्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी तथा व्याघ्र शैली के सिक्के चलाए। 

चंद्रगुप्त के शक मुद्राओं का अनुसरण कर चांदी के सिक्के चलावाये। 

शक विजय के परिणाम स्वरुप चंद्रगुप्त का अधिकार मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र एवं काठियावाड़ पर स्थापित हो गया। पश्चिमी तट के प्रमुख बंदरगाह भड़ौच पर भी उसका अधिकार हो गया। 


धर्म:- 

चंद्रगुप्त द्वितीय की परम भागवत उपाधि उसके वैष्णव धर्म के अनुयाई होने का प्रमाण है। वह वैष्णव होते हुए भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। 

उसका सचिव वीरसेन शैव था। सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध था। 

विद्या प्रेम:- 

चंद्रगुप्त द्वितीय स्वयं विद्वान एवं विद्वानों का आश्रय दाता था। उसके दरबार में 9 विद्वानों की एक मंडली थी जिसे नवरत्न कहा गया। 

इसमें:- 

कालिदास 

धनवंतरी 

क्षपणक 

अमर सिंह 

शंकु 

बेतालगृह 

घटकर्पर 

वराहमिहिर और 

वररुचि जैसे विद्वान थे। 

पाटलिपुत्र एवं उज्जैनी विद्या के प्रमुख केंद्र थे। उज्जैन में काव्यकारों की परीक्षा लेने के लिए एक विद्वतपरिषद थी।  

इस परिषद ने कालिदास, भारवि, अमरू, हरीशचंद्र, चंद्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी। 


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