समुद्रगुप्त- भारत का नेपोलियन
समुद्रगुप्त (335-375 ई.):-
समुद्रगुप्त गुप्त वंश का एक शक्तिशाली शासक था। समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है।
समुद्रगुप्त अशोक की शांति एवं अनाक्रमण की नीति के विपरीत हिंसा एवं आक्रमण में विश्वास करता था।
समुद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध कवि हरिषेण रहता था।
हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति के 7वें श्लोक में समुद्रगुप्त की विजय अभियानों का उल्लेख किया है। यह अभिलेख उसी स्तंभ पर खुदा है जिस अशोक का स्तंभ लेख है।
इसी प्रशस्ति लेख के चतुर्थ श्लोक में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चुने जाने का उल्लेख मिलता है।
इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित ऐरण नामक स्थान से समुद्रगुप्त का एक लेख मिलता है जिसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी बताया गया है, जो प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान था।
इसी अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम तक दत्तदेवी बताया गया है।
सैनिक अभियान:-
अपने सैनिक अभियान के प्रथम चरण में समुद्रगुप्त ने गंगा-यमुना दोआब के राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
गंगा-यमुना दोआब के शासकों में अहिच्छत्र के शासक अच्युत देव, चंपावती के शासक नागसेन एवं विदिशा के शासक गणपति नाग प्रमुख। इस विजय के बाद समुद्रगुप्त ने पुष्यनगर पर विजयोत्सव मनाया।
इसके बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ की विजय यात्रा प्रारंभ की। दक्षिणापथ विजय यात्रा दौरान 12 शासकों से उसका सामना हुआ।
समुद्रगुप्त ने इनको पराजित कर बाद में वापस कर दिया। उसके दक्षिण विजय की नीति को तीन आधारशिला थे:-
1) ग्रहण (शत्रु पर अधिकार),
2)मोक्ष (शत्रु को मुक्ति),
3) अनुग्रह (राज्य लौटाना)।
समुद्रगुप्त की इस नीति को हरिषेण ने "ग्रहणमोक्षानुग्रह" के नाम से पुकारा है। जबकि राय चौधरी ने इस प्रकार की विजय को धर्मविजय कहा।
उसने अपनी विजयों की उद्घोषणा हेतु अश्वमेध यज्ञ संपन्न कराया था और अपने सिक्कों पर उसने यूप (वह स्तंभ जो किसी विजय अथवा कीर्ति आदि की स्मृति में बनाया गया हो) की आकृति खुदवाई।
समुद्रगुप्त के प्राप्त कुछ सिक्कों पर अश्वमेध पराक्रम खुदा है। उस पर उसे वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है।
समुद्रगुप्त ने 6 -प्रकार के स्वर्ण मुद्राएं (गरुड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्रहंता एवं विनासन) चलाये।
जिसमें गरुण मुद्राएं सर्वाधिक लोकप्रिय थे।
समुद्रगुप्त ने धरणिबंध (पृथ्वी को बांधना) अपना वास्तविक लक्ष्य बनाया था।
समुद्रगुप्त द्वारा विजित क्षेत्र:-
समुद्रगुप्त द्वारा जीतेगा क्षेत्रों को हम 5 भागों में विभाजित कर सकते हैं:-
1) गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र,
2) हिमालय के पूर्वी भाग प्रदेश (नेपाल, असम, बंगाल)
3) विंध्य क्षेत्र में पड़ने वाले आटविक राज्य
4) पूर्वी दक्कन एवं दक्षिण भारत के 12 राज्य, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने अधीनता में लेकर मुक्त कर दिया था।
5) शकों एवं कुषाणों के क्षेत्र सम्मिलित है।
शक, कुषाण तथा मुरुदण्ड आदि शासकों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करके तीन विधियां बनाई:-
1) आन्य निवेदन :- सम्राट के सामने स्वयं हाजिर होना।
2) कन्यापायन :- अपनी पुत्री का गुप्त राज्यों से विवाह करना।
3) गुरुनमंदक :- अपने विषय या मुक्ति के लिए शासनादेश प्राप्त करना।
एक चीनी स्त्रोत से प्रमाण मिलता है कि श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने कुछ उपहार बेचकर समुद्रगुप्त से गया (बिहार) में एक बुद्ध मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी थी।
समुद्रगुप्त एक विद्वान भी था उसे कविराज की उपाधि दी थी। वह महान बौद्ध भिक्षु वसुबंधु को संरक्षण दिया था।
इलाहाबाद स्तंभ लेख में समुद्रगुप्त की ओक और उपाधि धर्मप्रचार बंधु का उल्लेख मिलता है।
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