मूल अधिकार की परिभाषा :-
- मूल अधिकारों को उन अधिकारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास लिए आवश्यक हो।
- यह अधिकार व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक, और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
संविधान के भाग-3 में दिये मूल अधिकारों को 6 भागों में बांटा जा सकता है :-
- समता का अधिकार ----------------------- अनुच्छेद 14-18
- स्वतंत्रता का अधिकार --------------------- अनुच्छेद 19-22
- शोषण के विरुद्ध अधिकार ---------------- अनुच्छेद 23-24
- धर्म स्वतंत्रता का अधिकार ---------------- अनुच्छेद 25-28
- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार----- अनुच्छेद 29-30
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार --------- अनुच्छेद 32-35
1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
अनुच्छेद-14:- - "विधि के समक्ष क्षमता और विधियों के सामान संरक्षण का अधिकार"।
- यह अधिकार सभी व्यक्तियों अर्थात नागरिकों, तथा गैर नागरिकों को प्रदान किया गया है।
अनुच्छेद-15:-
- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।
- लोक नियोजन के विषय में अवसरों की समता।
- अस्पृश्यता का अंत
- उपाधियों का अंत
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
अनुच्छेद-19:- वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकार।
अनुच्छेद-19 (1)(क):: वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
- इसके अंतर्गत:- प्रेस की स्वतंत्रता शामिल है।
- नागरिकों द्वारा अपने घरों, दफ्तरों आदि में राष्ट्रीय ध्वज फहराना आदि आता है।
अनुच्छेद-19 (1)(ख):: शांतिपूर्ण तथा निरायुध सम्मेलन करने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद-19 (1)(ग):: संगम तथा संघ बनाने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद-19 (1)(घ):: भारत में सर्वत्र स्वतंत्रतावूर्वक भ्रमण करने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद-19 (1)(ङ):: भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने तथा बस जाने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद-19 (1)(छ):: वृत्ति, उपजीविका, व्यापर या कारोबार करने स्वतंत्रता
अनुच्छेद-20:- अपराधों के दोष-सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण।
प्रत्येक व्यक्ति चाहे नागरिक हो या न हो यह अधिकार दिया गया है कि उसे तब तक दंड नहीं दिया जा सकता जब तक उसने किसी प्रवर्तनीय कानून का उल्लंघन न किया हो। इस संबंध में व्यक्तियों को निम्नलिखित संरक्षण प्रदान किया गया है :-
- किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए तब तक दोषी निर्णीत नहीं किया जा सकता जब तक उसने ऐसी विधि का उल्लंघन ना किया हो जो उस समय प्रवर्तन में ना हो।
- किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए उससे अधिक दंड नहीं दिया जा सकता जो उस अपराध के लिए विधि द्वारा विहित हो।
- किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक दंड नहीं दिया जा सकता।
- किसी अपराध के अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य पेश करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद-21:- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
- किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
- यह स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को प्रदान किया गया है चाहे वे नागरिक हो या न हो।
- विदेश में जाने या विदेश में भ्रमण के स्वतंत्रता
- निशुल्क विधिक सहायता का अधिकार
- यातना न दिए जाने के अधिकार को सम्मिलित करने मानवीय गरिमा का अधिकार।
- निरुद्ध व्यक्ति द्वारा अपने विधिक सलाहकार तथा कुटुंब के सदस्यों और मित्रों के साथ मुलाकात करने का अधिकार।
- पुलिस की क्रूरता के विरुद्ध अधिकार।
- दोष मुक्ति के बाद अवैध रूप से कारागार में निरुद्ध रखने पर प्रतिकार करने का अधिकार।
- अपील करने का कानूनी अधिकार।
- जीविकोपार्जन का अधिकार।
86 वां संविधान संशोधन :- अनुच्छेद 21 (क) को समाहित किया गया है
- इसके अनुसार 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए निशुल्क अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया है।
अनुच्छेद-22:- कुछ दशकों में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
गिरफ्तार व्यक्तियों का अधिकार तथा उसे संरक्षण:-
- जो व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है उसे उसकी गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंतर्गत निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।
- इस 24 घंटे के अंदर वह समय सम्मिलित नहीं है जो गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष ले जाने में रास्ते में लगता है।
- उक्त अधिकार उन व्यक्तियों को नहीं प्राप्त है जो शत्रु देश के नागरिक हैं।
संसद ने इस अधिकार का प्रयोग करके अब तक निम्नलिखित अधिनियम को अधिनियमित किया है:-
- निवारक निरोध अधिनियम 1950 (Preventive Detention Act-1950):
- 13 दिसंबर 1969 तक अस्तित्व में रहा
- इसके अंतर्गत नजरबंदी की अवधि 1 वर्ष थी
- आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम-1971
- राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980
- विदेशी मुद्रा संरक्षण तथा तस्करी निवारण अधिनियम
- आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) अधिनियम
- आतंकवाद निरोधी अधिनियम-2002 (Prevention Of Terrorism Act-POTA)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने तथा उसके बीच विभेद को रोकने के लिए, दुराचारी व्यक्तियों तथा अन्य द्वारा समाज के दुर्बल वर्गों के शोषण को रोकने के लिए अनुच्छेद 23 तथा 24 में प्रावधान किया गया है:-
अनुच्छेद-23:- मानव के दुर्व्यापार और बल श्रम का प्रतिषेध।
- मानव के दुर्व्यापार तथा बेगारी और इसी प्रकार के अन्य बलात श्रम का प्रतिषेध किया गया है।
- उसका उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
- इसके तहत संसद ने बंधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम 1976 पारित किया है
अनुच्छेद-24:- कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध।
- इसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के नियोजन के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य पर संकट में कार्य में नहीं लगाया जाएगा।
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28):-
अनुच्छेद 25:- अंतःकरण की स्वतंत्रता
- सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म को बिना किसी बाधा के मानने का आचरण करने का और प्रचार करने का अधिकार है।
- लेकिन इस स्वतंत्रता तथा अधिकार का लोक व्यवस्था सदाचार एवं स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 26:- धार्मिक कार्यों के प्रबंधन के स्वतंत्रता
अनुच्छेद 27:- धार्मिक व्यय पर कर से मुक्ति।
- इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को ऐसा कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिसकीआय को किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय की वृद्धि के लिए व्यय किया जाता है।
अनुच्छेद 28:- कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता।
- उन शिक्षण संस्थाओं में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी जो पूर्णता सरकार के खर्च पर संचालित होती है।
- राज्य से मान्यता प्राप्त है या राजनीति से सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षण संस्थान में अध्ययनरत विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा संस्थान में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली उपासना में उपस्थित होने के लिए उनकी अनुमति के विरुद्ध बाध्य नहीं किया जाएगा।
5. संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30):-
अनुच्छेद 29:- अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण।
- इसके अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी विशेष भाषा, लिपि तथा संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होता।
- यह अधिकार केवल उन व्यक्तियों को प्रदान किया गया है जो भाषा, लिपि या संस्कृति की दृष्टि से अल्पसंख्यक है।
अनुच्छेद 30:- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार।
- धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि के अनुसार शिक्षा संस्था को स्थापित करने तथा उसका प्रशासन करने का अधिकार है।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकारअनुच्छेद -32:-
- संवैधानिक उपचार संबंधी मूल अधिकार अनुच्छेद 32-35 में किया गया है।
- मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित रिट जारी करने की शक्ति है:-
- बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट
- परमादेश रिट
- प्रतिषेध रिट
- उत्प्रेषण रिट
- अधिकार पृच्छा रिट
बंदी प्रत्यक्षीकरण:- यह रिट उस प्राधिकारी के विरुद्ध जारी की जाती है जो किसी व्यक्ति को निरुद्ध कर रखता है।
- इस रिट को जारी करके किसी व्यक्ति को निरुद्ध करने वाले प्राधिकारी को यह निर्देश दिया जाता है कि वह उस व्यक्ति को न्यायालय में पेश करें जिसे निरोध के अधीन रखा है, जिससे न्यायालय यह सुनिश्चित कर सके कि उसका विरोध में रखा जाना वैध है या अवैध
परमादेश:- यह रिट न्यायालय द्वारा उस समय जारी की जाती है जब कोई लोक प्राधिकारी अपने कर्तव्यों के निर्वहन से इंकार करें।
- यह रिट तब जारी की जाती है जब आवेदक को लोक प्रवृत्ति के किसी विधिक कर्तव्य के अनुपालन का विधिक अधिकार है और उससे जिसके विरुद्ध रीट की याचना की जाती है उस कर्तव्य को करने के लिए बात है
प्रतिषेध:- यह रिट अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध जारी की जाती है।
- यह रिट को जारी कर के अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता से बाहर कार्य करने से रोका जाता है।
- इस रिट का उद्देश्य यह है कि और न्यायालयों को अपनी अधिकारिता की सीमा में रहने के लिए बाध्य किया जाए।
उत्प्रेषण:- यह रिट भी अधीनस्थ न्यायालयों को जारी किया जाता है।
- इस रिट को जारी करके अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लंबित मुकदमों के न्याय निर्णयन के लिए उससे वरिष्ठ न्यायालय को भेजें।
अधिकार पृच्छा:- यह रिट उस व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है जो किसी ऐसे लाभ के पद को धारण करता है जिसे उसे धारण करने का अधिकार नहीं है।
- इस रिट के दौरान न्यायालय लोक पद पर किसी व्यक्ति के दावे की वैधता की जांच करता है और यदि उसका दावा सुआधारित नहीं है तो वह उसे उस पद से निष्कासित कर देता है।
अनुच्छेद 33:- संसद द्वारा मूल अधिकारों के उपांतरण की शक्ति द्वारा संसद में निहित की गई है।
संसद अपनी इस शक्ति को प्रयोग में निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में मूलाधिकारों को उपांतरित करके यह व्यवस्था कर सकती है कि किस सीमा तक इन व्यक्तियों को मूल अधिकार प्राप्त होंगे-
- सशस्त्र बलों के सदस्यों को
- लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदाई सुरक्षाबलों के सदस्यों को
- आसूचना या प्रति आसूचना के उद्देश्य के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी अन्य ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को,
- उक्त तीनों में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूर संचार प्रणाली या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को।
अनुच्छेद 34:- जब किसी क्षेत्र में सेना विधि या मार्शल लॉ प्रवर्तन में हो तब संसद विधि द्वारा मूल अधिकारों पर निर्बंधन अधिरोपित कर सकती है।
संपत्ति का अधिकार :- संविधान के प्रवर्तन के समय संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों के रूप में मान्यता दी गई थी। और संविधा के अनुच्छेद -19 (1)(च) तथा अनुच्छेद -31 में प्रावधान किया गया था।
- 44वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद -19 (1)(च) तथा अनुच्छेद -31 को निरस्त कर संविधान में अनुच्छेद-300-क जोड़कर संपत्ति के अधिकार को कानूनी अधिकार बना दिया गया।
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