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न्यायिक पुनर्विलोकन, पृथक्करणीयता, अधित्यजन का सिद्धांत

 

न्यायिक पुनर्विलोकन :-

  • जब राज्य (जिसमे संसद, विधानमंडल, स्थानीय प्राधिकारी तथा अन्य प्राधिकारी सम्मिलित होते हैं) कोई अधिनियम, विनियम, नियम, परिनियम, अध्यादेश आदि पारित करता है या जारी करता है, और उसमे दिए हुए प्रावधान संविधान के भाग -3 में व्यक्तियों को प्रदान किये गए मूलाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, या उन्हें न्यून करते हैं, तब याचिका दाखिल  किये जाने पर न्यायालय उसका न्यायिक पुनर्विलोकन कर सकते हैं। 


  • न्यायालय न्यायालयों के ऐसे निर्णयों का भी न्यायिक पुनर्विलोकन कर सकते हैं, जो मूलाधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
  • न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत को संयुक्त राज्य अमेरिका से ग्रहण किया गया है।

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पृथक्करणीयता का सिद्धांत :-

  • यदि राज्य द्वारा निर्मित किसी विधि का कोई भाग मूल-अधिकार से असंगत है या मूल अधिकारों के विरुद्ध है, तो वह विधि पूर्णतया असंवैधानिक और शून्य नहीं घोषित की जाएगी बल्कि उसके उस भाग को शून्य घोषित किया जायेगा, जो मूल अधिकारों से असंगत हो या मूल अधिकारों के विरुद्ध हो। लेकिन शर्त यह है की वह भाग पृथकरणीय  हो। 
  • यदि मूल अधिकारों से असंगत या मूल अधिकारों के विरुद्ध होने वाला भाग पृथकरणीय न हो तो सम्पूर्ण विधि शून्य घोषित हो जाएगी। 



अधित्यजन का सिद्धांत :-

  • इस सिद्धांत के अनुसार कोई व्यक्ति जिसे मूलाधिकार प्रदान किया गया है, वह मूल अधिकारों का त्याग नहीं कर सकता। 





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