* जनजातियों में पिछड़ेपन का कारण *
जनजाति |
"जनजाति" अथवा "आदिवासी" शब्द सुनकर सर्वप्रथम मस्तिष्क में एक ऐसे समूह की छवि बनती है- जो जंगलों में रहते हैं। समाज की मुख्यधारा से दूर हो चुके हैं तथा अत्यंत रूप से पिछड़ा हुआ है। किंतु क्या यह परिस्थिति केवल भारत में है, नहीं! किंतु "हाँ" भारतीय आदिवासी अत्यंत पिछड़ा हुआ है। छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ नामक क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की तो आज तक गिनती तक नहीं हो सकी है। वहीं कुछ समय पूर्व समाचारों में रहे अंडमान और निकोबार की सेंटिनल जनजाति तो पिछले 50000 वर्षों से एक छोटे से द्वीप पर निवास कर रही है, जो अत्यंत पिछड़ी हुई है। मंथन का विषय यह है कि किस कारणवश आदिवासी कहलाने वाले यह लोग आज भी पिछड़े हैं तथा इनके पिछड़ने का कारण क्या है।
जनजाति वर्ग भारत की कुल जनसंख्या का 8.14% है। तथापि ऐसा माना जाता है कि भारत के जनजाति वर्ग के लोग ही इस धरा के मूल निवासी हैं। किंतु मूल निवासी होने पर भी इनकी स्थिति
चिंतनीय क्यों है। आखिर इनके पिछड़ेपन का कारण क्या है। इन कारणों को हम निम्न रूप
से समझ सकते हैं।
- आर्थिक कारण
- राजनैतिक कारण
- सामाजिक कार्य
- शैक्षणिक कार्य
आर्थिक कारण:-
एक शताब्दी पूर्व तक आदिवासी वर्ग के लिए जीवन आज जितना कठिन नहीं था। वनों पर उनका संपूर्ण अधिकार था। परंतु अंग्रेजी काल से उन्हें वन अधिकारों से वंचित कर अनेक प्रतिबंध लगा दिए गए। क्योंकि वह पारंपरिक कृषक नहीं थे, अतः कृषि नाम मात्र ही करते थे। एक रिपोर्ट अनुसार केवल 72% आदिवासियों के पास कृषि भूमि है, तथा 70% परिवारों को फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। कृषि के लिए 80% परिवार ऋण लेते हैं, जिनकी पहुंच बैंकों तक नहीं है। 70% परिवार साहूकारों से ऋण लेकर मूलधन और ब्याज के चक्कर में फस कर रह जाते हैं।
सामाजिक कारण:-
जनजाति समाज की रूढ़ियां, रीति-रिवाज, परंपराएं
भी सामाजिक पिछड़ेपन के लिए उत्तरदाई है। आदिवासियों
की संस्कृति में शराब के सेवन करना सिखाया जाता है। अतः लगभग सभी आदिवासी शराब का
सेवन करते हैं, तथा बिना संरचनात्मक कार्य किए नशे में धुत
अपनी स्थिति को कमजोर कर डालते हैं। उसी प्रकार अन्य संस्कृतियों से अपनी
संस्कृतियों को बचाने समाज की मुख्यधारा से अलग होकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से अपने
आप को दूर कर लिया है।
राजनीतिक कारण:-
भारत के वर्तमान चुनाव
राजनीति का पूर्ण ज्ञान नहीं होने के कारण जनजातियों को अपने मत का महत्व ही पता
ही नहीं है। पंचायती राज व्यवस्था से लेकर संसद तक
जनजातियों को आरक्षण प्राप्त है, परंतु अध्ययन से यह पता
चलता है कि जनजाति नेतृत्व
में सशक्तिकरण की आवश्यकता है। लगभग 48% जनजातियों ने आज तक मतदान की नहीं दिया।
इस तथ्य से उनके पिछड़ेपन का अंदाजा लगाया जा सकता है।
शैक्षणिक कारण:-
जनजातियों की संपूर्ण
समस्याओं का मुख्य आधार उनका अशिक्षित होना है। अशिक्षित होने के कारण वह
अंधविश्वासी हैं, और जादू टोने पर विश्वास कर खूब धन उठाते
हैं। अशिक्षा के कारण ही शासन द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कम ही परिवार ले पाता है।
सरकारी प्रयास:-
सरकार द्वारा अपने स्तर
पर जनजातियों को सबल बनाने के लिए अनेक योजनाओं का
संचालन किया गया है। जन धन योजना के माध्यम से वित्तीय समावेशन को प्रोत्साहित
किया ताकि ऋण हेतु सीधे बैंकों से जुड़ सकें, और साहूकारों
के शोषण से मुक्ति मिले। सर्वशिक्षा अभियान, रेडी-टो-ईट-फूड,
सरस्वती साइकिल योजना, आदिवासी विद्यालयों के माध्यम से शिक्षा का प्रसार करने का निरंतर प्रयास किया जा रहा है,
जिससे उन्हें सामाजिक व राजनीतिक रूप से सक्षम बनाया जा सके। आर्थिक
स्थिति सुधारने वनोंपजों जैसे तेंदूपत्ता का न्यूनतम
समर्थन मूल्य ₹4000 प्रति मानक बोरा किया गया। उसी प्रकार
चिरौंजी, हर्रा आदि को भी बढ़ावा दिया जा रहा है फसलों का
बीमा करा कर नुकसान होने पर पूरा भुगतान किया जा रहा है। वर्तमान में सरकार ने किसानों को लगभग 6100 करोड़ रुपए कर्ज माफ कर आर्थिक लाभ
दिया है।
भारत की कुल जनसंख्या में जनजातियों की प्रतिशत जनसंख्या
8.14 प्रतिशत है। वहीं छत्तीसगढ़ में 30.6% जनसंख्या जनजातियों की है। अतः
छत्तीसगढ़ एक जनजाति बहुल राज्य होने के कारण आर्थिक विकास दर
में जनजातियों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए सरकार के द्वारा किए जा रहे
प्रयास सराहनीय है। फिर भी छत्तीसगढ़ आर्थिक रूप से एक पिछड़ा राज्य है जिसकी 38%
जनसंख्या गरीबी का शिकार है। जिसमें जनजातियों का सबसे
ज्यादा अनुपात है। अतः उन्हें पिछड़ेपन से उबारने के लिए सरकार को दिए जा रहे
आरक्षण में कुछ परिवर्तन कर अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोगों को मुख्यधारा में वापस
लाने का प्रयास करना चाहिए। सामाजिक बुराइयों को दूर करने शिक्षा का प्रसार करना
चाहिए तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने रोजगार उपलब्ध कराना चाहिए।
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