प्रमुख-किसान-आंदोलन
पावना विद्रोह (1875-76)
पावना जिले के काश्तकारों को 1859 में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था। इसके बावजूद भी जमींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला और उनको उनके जमीन के अधिकार से वंचित कर दिया। जमीदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 में पावना के युसूफ सराय के किसानों ने मिलकर एक कृषक संघ का संगठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभाएं आयोजित करना होता था।
यह जमीदारों के विरुद्ध किया गया आंदोलन था न कि अंग्रेजों के।
पाबना के किसानों ने अपनी मांग में यह नारा दिया था कि -- "हम महामहिम महारानी की और केवल उन्हीं की रजत होना चाहते हैं।"
तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने अपनी एक घोषणा में इनकी मांगों को उचित ठहराया। इस आंदोलन में किसानों में अधिकतर मुसलमान और जमीदारों में अधिकतर हिंदू थे।
महत्वपूर्ण नेताओं थे --- ईशान चंद्र राय, शंभू पाल आदि।
मांग :- इन लोगों ने मांग की कि जमीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए जो वस्तु था उसे जोतते हो।
पावना विद्रोह का समर्थन कई युवा बुद्धिजीवियों ने किया जिनमें बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और आरसी दत्त शामिल थे।
1880 के दशक में जब बंगाल काश्तकारी विधेयक पर चर्चा चल रही थी, तब सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस, द्वारकानाथ गांगुली ने एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया।
इन लोगों ने मांग की कि जमीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए जो वस्तु था उसे जोतते हो।
कालांतर में पूर्वी बंगाल के अनेक जिले ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बेकरगंज, फरीदपुर, बोगरा एवं राजशाही में इस तरह के आंदोलन हुए। किसान संघ ने बड़े लगान की अदायगी रोककर पैमाइश के माप में परिवर्तन एवं अवैधानिक करो की समाप्ति तथा लगान में कमी करवाने की अपनी मांगों को पूरा करवाना चाहा। यह आंदोलन कुछ मामलों में अहिंसक था।
दक्कन विद्रोह
महाराष्ट्र के पुणे एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकंडे अपना कर किसानों का शोषण कर रहे थे।
दिसंबर 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान बाबासाहेब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिग्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन का शुरू कर दिया।
इन साहूकार के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव में हुआ। 1875 तक यह आंदोलन पूना,अहमदाबाद, सतारा, सोलापुर आदि जिलों में फ़ैल गया।
किसानों ने साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। सरकार ने दक्कन आयोग का गठन किया। किसानों की स्थिति में सुधार हेतु 1879 में ढक्कन कृषि राहत अधिनियम को पारित किया गया।
मोपला विद्रोह
केरल के मालाबार क्षेत्र में महिलाओं द्वारा 1920 में यह विद्रोह किया गया। प्रारंभ में यह विद्रोह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ था।
महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था।
इस आंदोलन के मुख्य नेता के रूप में अली मुसलियार चर्चित थे। 15 फरवरी 1921 को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता याकूब हसन, यू गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद यह आंदोलन मोपला नेताओं के हाथ से चला गया। 1920 में इस आंदोलन ने हिंदू मुस्लिम के मध्य सांप्रदायिक आंदोलन का रूप ले लिया, किंतु शीघ्र ही उसका आंदोलन को कुचल दिया गया।
कूका आंदोलन
कृषि संबंधित समस्याओं के खिलाफ अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे।
1872 ई. में इनके शिष्य बाबा राम सिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालांतर में उसे जेल कैद कर रंगून भेज दिया गया जहां 1850 ईसवी में मौत हो गई।
रंपाओं का विद्रोह
आंध्र प्रदेश के सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो 1879 से लेकर 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।
रम्पाओं को मुट्टा तथा उनके जमीदार को मुट्टादार कहते थे। सुलिवन ने रम्पाओं के विद्रोह के कारण जांच की।
उनसे नए जमीदारों को हटाकर पुराने जमीदार को रखने की सिफारिश की।
ताना भगत आंदोलन
इस आंदोलन की शुरुआत 1914 में बिहार में हुआ।
यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदार कर के विरुद्ध किया गया था।
इस आंदोलन के प्रवर्तक जतरा भगत थे।
इसके अतिरिक्त अन्य नेताओं में बलराम भगत, गुरुदक्षिणी भगत आदि इस आंदोलन के संबंधित थे।
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