नील आंदोलन
-: (ददनी प्रथा) (1859-1860) :-
किसके द्वारा :- यह आंदोलन भारतीय किसानों द्वारा किया गया
किसके विरुद्ध :- ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ
स्थान :- बंगाल में किया गया
कारण :- अंग्रेजी अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमीदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे। जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था।
परिणाम :- यह आंदोलन पूर्ण रूप से सफल रहा।
घटना क्रम :-
इस आंदोलन की सर्वप्रथम शुरुआत सितंबर 1859 में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव में हुआ।
इस आंदोलन की शुरुआत दिगंबर एवं विष्णु विश्वास ने की थी।
अंग्रेज किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, जबकि किसान अपनी उपजाऊ जमीन पर चावल की खेती करना चाहते हैं।
भारतीय किसानों ने अंग्रेजों द्वारा अपने साथ दासों जैसा व्यवहार करने के कारण विद्रोह किया। यह आंदोलन नदिया, पाबना, खुलना, ढाका। मालदा। दीनाजपुर आदि स्थानों पर फैला था।
किसानों की आपसी एकजुटता, अनुशासन एवं संगठित होने के बदौलत ही यह आंदोलन पूर्ण रूप से सफल रहा। इसकी सफलता के सामने अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा।
1860 के नील विद्रोह का वर्णन "दीनबंधु मित्र" ने अपनी पुस्तक 'नील दर्पण' में किया है।
"हिंदू पेट्रियट" के संपादक हरीश चंद्र मुखर्जी ने नील आंदोलन में काफी काम किया। किसानों के शोषण, सरकारी अधिकारियों के पक्षपात और इसके विरुद्ध विभिन्न स्थानों पर चल रहे किसानों के संघर्ष के बारे में उन्होंने अखबार में लगातार खबरें छापी।
मिशनरियों ने भी नील आंदोलन में समर्थन में सक्रिय भूमिका निभाई।
इस आंदोलन के प्रति सरकार का भी रवैया काफी संतुलित रहा।
अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किए जाने वाला या आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था।
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