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महावीर स्वामी का जीवन परिचय

* महावीर-स्वामी *

महावीर-स्वामी


        जैन शब्द जिन धातु से बना है इसका अर्थ है विजेता- अर्थात जिसने इंद्रियों को जीत लिया है। जीन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के लिए ही किया गया था क्योंकि उन्होंने अपनी समस्त इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी अतः जैन धर्म का वर्तमान नाम महावीर के काल में अस्तित्व में आया। जैन धर्म को सनातन धर्म माना जाता है। 

        अर्थात न तो इसका आदी है और न ही अंत। समय समय पर अपनी उपदेशों से सीख देने के लिए महापुरुषों का इस विश्व में अवतरण होता रहा है। जैन धर्मावलंबियों में भी अब तक कुल 24 महापुरुषों ने अपने उपदेशों से मनुष्य को जीने की सही राह दिखाई है। उन्ही महापुरुषों को तीर्थंकर कहा जाता है। इसी कड़ी में महावीर स्वामी का अवतरण हुआ। 24 वे तीर्थंकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक के रूप में महावीर स्वामी जाने जाते हैं। महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व, चैत्र मास-शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में वैशाली नगर कुंडग्राम में हुआ था। उनके बचपन का नाम वर्धमान था। वर्ण से क्षत्रिय एवं कुल के ज्ञात्रिक थे।  पिता का नाम सिद्धार्थ था जो वज्जि संघ के प्रमुख सदस्य थे। माता का नाम त्रिशला था जो लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी।

        अर्थात वे एक समृद्ध परिवार के सदस्य थे। उनके पास सारी सुख-संसाधन उपलब्ध थे। महावीर चाहते तो आराम का जीवन जी सकते थे। किंतु ज्ञान की लालसा ने उन्हें संसारिक मोह बंधन में बंधने नहीं दिया। ज्ञान प्राप्ति के लिए इन्होंने 30 वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई नंदीवर्धन की आज्ञा लेकर घर, पत्नी और पुत्री को त्याग कर वन को चले गए। घर त्यागने के बाद स्वामी जी सन्यासी हो गये। वन-वन भटकने लगे, ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनेकों साधु-संतों के सानिध्य में रहे। 


        इस संसार के मोह माया से संपूर्ण रूप से स्वयं को अलग करने के लिए घर त्याग के 13 महीने बाद इन्होंने अपने वस्त्रों का भी त्याग कर दिया। यह उनकी मनोदशा दर्शाती है कि अब उनके भीतर किसी भी प्रकार का सांसारिक मोह-माया व्याप्त नहीं रही। इस प्रकार 12 वर्ष तक लगातार कठोर तपस्या एवं साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जाम्बिका ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे 1 साल वृक्ष के नीचे कैवल्यअर्थात ज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्य प्राप्त हो जाने के बाद महावीर स्वामी को केवल जिन(विजेता), अर्ह(योग्य) या निर्ग्रंथबंधन रहित) जैसी उपाधियों से उपाधियां मिली। यहीं से सनातन प्रचलित "निर्ग्रंथ या निगण्ड" धर्म का नाम जैन धर्म हो गया। 

        कैवल्य की प्राप्ति होने के पश्चात् महावीर स्वामी ने आपने  प्रचार प्रसार के लिए 11 गणों को नियुक्त किया। महावीर स्वामी ने पूर्व जन्म के संचित कर्मफलों को समाप्त करने एवं इस जन्म के कर्मफल से बचने के लिए त्रिरत्नों के पालन की शिक्षा दी। वे हैं:- 

सम्यक श्रद्धा:- (सत में विश्वास), 

सम्यक ज्ञान:-  (सात का ज्ञान), और 

सम्यक आचरण:- (सदाचार का पालन करते हुए बाह्य जगत के विषयों प्रति सामान दुःख-सुख भाव  उदासीनता ही सम्यक आचरण है) 


        अच्छा और सदाचारी जीवन जीने के लिए महावीर स्वामी ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया है। 

अहिंसा :- अर्थात सभी प्रकार की मानसिक, वाचिक एवं कार्यिक हिंसा से बचना। यह जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण व्रत है। जैन धर्म में अहिंसा पर ही सबसे अधिक बल दिया जाता है। 

सत्य :-  सदा सत्य एवं मधुर बोलना। 

अपरिग्रह :- इसमें सब प्रकार से संपत्ति अर्जन से भिक्षुओं को बचना चाहिए। 

अस्तेय :- अनुमति के बिना किसी दूसरे की संपत्ति ग्रहण करने से बचना। 

ब्रह्मचर्य :- भिक्षुओं को पूर्ण ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। 

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए उपयुक्त व्रतों की कठोरता में कमी करके उसे अणुव्रत नाम दिया। 

        महावीर स्वामी ने कहा कि सृष्टि के कण-कण में आत्मा का वास है अर्थात आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी असीम नहीं है। महावीर स्वामी पुनर्जन्म और कर्मवाद पर विश्वास रखते थे। अर्थात मनुष्य अपने कर्मो के कारण ही जन्म-मरण के भॅवर में फसता है, जिसका उपाय है त्रिरत्नों को पालन। 

        महावीर स्वामी ने स्यादवाद का भी सिद्धांत दिया जिसे सप्त भंगीनय भी कहा जाता है। मूल रूप से ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है इसमें संसार एक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय ना तो पूर्णता स्वीकार किए जा सकते हैं और ना ही पूर्णता स्वीकार ही। 

        महावीर स्वामी के विचारों से प्रभावित होकर मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंग राज खारवेल, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष आदि कई ऐसे राजा हो गए जिन्होंने जैन धर्म अपनाया और संरक्षण दिया। 

        जैन मत का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में 468 ई.पू. में राजगृह के समीप स्थित पावापुरी नामक स्थान पर महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ। महावीर स्वामी के मार्ग का यदि कोई व्यक्ति पूर्ण रूपेण पालन करें तो निश्चित ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर निर्वाण (अर्थात-मोक्ष) को प्राप्त कर सकेगा। 




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