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सल्तनत कालीन राजत्व का सिद्धान्त

सल्तनत कालीन राजत्व का सिद्धान्त

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  • तुर्क-अफगान शासकों द्वारा दिल्ली सल्तनत को इस्लामी राज्य की संज्ञा दी गई है। वे अपने साथ शासन की धार्मिक व्यवस्था भी लाये थे। इस शासन व्यवस्था में राजा को धार्मिक नेता माना जाता था। 
  • दिल्ली सल्तनत एक इस्लामिक राज्य था, जिसके  अभिजात वर्ग एवं उच्चतर प्रशासनिक पदों  क्रम इस्लाम धर्म के थे। 
  • सैद्धांतिक रूप से दिल्ली सल्तनत के सुलतानों ने भारत में इस्लाम कानून लागु करने एवं अपने अधिकार पत्र के दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में परिवर्तित करने के प्रयास किये। 
  • सल्तनत काल के सभी शासक खलीफा के प्रति निष्ठावान थे, तथा स्वयं को खलीफा का प्रतिनिधि मान शासन करते थे (केवल अलाउद्दीन खिलजी और मुबारक शाह खिलजी को छोड़कर)।



जिन सुल्तानों ने राजत्व के सिद्धांत को अपने दृष्टि से व्याख्यायित किया और उसी पर अमल किया वे हैं:- 

            1) गयासुद्दीन बलबन, 

            2) अलाउद्दीन खिलजी और 

            3) मुबारकशाह खिलजी।



बलबन का राजत्व सिद्धांत:-

  • बलबन ने सुल्तान के पद को दैवीय कृपा का माना है।
  • बलबन का राजत्व का सिद्धांत निरंकुशता पर आधारित था।
  • बलबन ने शासक की दैवी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए अपने दरबार में सिजदा और पैबोस की प्रथा आरम्भ की।
  • वह उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में भेद करता था।
  • वह गैर तुर्की को कभी उच्च पद पर नहीं रखता था।
  • बलबन ने ईरानी त्यौहार "नौरोज" मनाने की प्रथा शुरू की।




अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धांत:-

  • अलाउद्दीन एक सुन्नी मुसलमान था, उसे इस्लाम में पूर्ण विश्वास था। 
  • उसने राजत्व के लिए दैवीय शक्तियों तथा सद्गुणों का दावा किया। 
  • वह राजा को देश के कानून से ऊपर मानता था। 
  • अपने शासनकाल में अलाउद्दीन ने पहले शमशीर (अभिजात वर्ग) तथा अहले कलम (उलेमा वर्ग) के प्रशासनिक प्रभाव को कम किया।
  • उसने शासक के पद को स्वेछाचारी तथा निरंकुश बनाया तथा स्वयं यामिन-उल-खिलाफत तथा नासिरी-अमीर-उल-मौमनीन की उपाधि धारण की। 
  • उसने अपने शासन की स्वीकृति के लिए खलीफा की मंजूरी को आवश्यक नहीं समझा। 



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